बिहार केसरी डॉ. श्रीकृष्ण सिंह: भारतीय लोकतंत्र के महान शिल्पकार

 

भूमिका

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के नायकों में कई ऐसे नाम हैं जो राष्ट्रीय फलक पर चमके, परंतु कुछ युगदृष्टा ऐसे भी रहे जिन्होंने अपने प्रदेश को नई चेतना दी, जनसरोकारों को सत्ता का आधार बनाया और आधुनिक भारत के निर्माण में अद्वितीय भूमिका निभाई। बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री डॉ. श्रीकृष्ण सिंह ऐसे ही नेतृत्व के प्रतीक हैं। उनके योगदान ने न केवल बिहार की नियति बदली, बल्कि भारतीय लोकतंत्र की बुनियाद को मजबूत किया। उन्हें प्रेमपूर्वक “श्री बाबू” और सम्मानपूर्वक “बिहार केसरी” कहा गया।


प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

डॉ. श्रीकृष्ण सिंह का जन्म 21 अक्टूबर 1887 को बिहार के मौड़ (जिला शेखपुरा) में एक शिक्षित भूमिहार ब्राह्मण कृषक परिवार में हुआ। बचपन से ही वे तेजस्वी, अनुशासनप्रिय और अध्ययनशील रहे। माँ का निधन जब वे मात्र 5 वर्ष के थे, उसी समय से जीवन ने उन्हें कठोरता सिखाई।

शिक्षा के लिए वे मुंगेर ज़िला स्कूल और फिर पटना कॉलेज गए जहाँ उन्होंने स्नातक और एम.ए. की शिक्षा पूरी की। इसके बाद उन्होंने विधि की पढ़ाई की और 1915 में वकालत प्रारंभ की। परंतु राष्ट्रभक्ति की भावना ने उन्हें जल्दी ही वकालत से दूर कर दिया।


स्वतंत्रता संग्राम और राजनीतिक दृष्टि

उनकी राष्ट्रवादी चेतना को दिशा दी महात्मा गांधी से 1916 में हुई पहली भेंट ने।
वे 1921 के असहयोग आंदोलन से सक्रिय हुए और वकालत त्याग दी।

प्रमुख आंदोलन:

  • 1922-34 के बीच आठ वर्ष जेल में बिताए

  • नमक सत्याग्रह, किसान आंदोलनों, अस्पृश्यता निवारण और बिहार में कांग्रेस का संगठन निर्माण

  • 1934 के नेपाल-बिहार भूकंप में राहत कार्यों का नेतृत्व

  • उनकी गर्जना और नेतृत्व ने ही उन्हें "बिहार केसरी" का उपनाम दिलाया


1937 का सत्ता में प्रवेश और सिद्धांतवादी प्रशासन

1935 के भारत सरकार अधिनियम के तहत हुए चुनावों में कांग्रेस बहुमत में आई और 20 जुलाई 1937 को श्री बाबू ने बिहार में मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। वे उस समय ब्रिटिश भारत में कांग्रेस के पहले प्रीमियर बने।

जब गवर्नर ने राजनीतिक बंदियों की रिहाई से मना किया, तो उन्होंने सिद्धांत के आधार पर त्यागपत्र दे दिया। बाद में 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध के विरोध में कांग्रेस ने सरकारें वापस ले लीं।


स्वतंत्र भारत के मुख्यमंत्री: युग निर्माण का काल (1946–1961)

15 अगस्त 1947 को जब भारत स्वतंत्र हुआ, डॉ. सिंह ने बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली और 1961 में मृत्यु तक इस पद पर बने रहे। उनका काल बिहार के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन का स्वर्ण युग माना जाता है।

1. जमींदारी उन्मूलन: सामाजिक क्रांति की शुरुआत

डॉ. सिंह ने सबसे पहले जमींदारी प्रथा को समाप्त किया।

  • बिहार जमींदारी उन्मूलन अधिनियम 1949-50 के अंतर्गत लाखों किसानों को भूमि का स्वामित्व मिला।

  • इस कदम से सामाजिक न्याय को बल मिला और एक नई ग्रामीण चेतना का जन्म हुआ।

  • यह भारत में भूमि सुधारों की पहली बड़ी सफलता थी।

2. दलित एवं पिछड़ा वर्ग उत्थान: समता का प्रयोग

  • देवघर के बैद्यनाथ धाम में दलित प्रवेश के लिए वे स्वयं मोर्चा पर थे

  • आरक्षण, शिक्षा के लिए छात्रवृत्तियाँ, तकनीकी संस्थानों में प्रवेश—सभी में पिछड़े वर्गों को अधिकार मिले

  • छूआछूत के विरुद्ध स्पष्ट राजनीतिक रुख ने उन्हें गांधीवाद का सच्चा वाहक बना दिया

3. शिक्षा और संस्कृति का विकास

  • पटना विश्वविद्यालय का पुनर्गठन

  • हज़ारों सरकारी और ग्रामीण स्कूलों की स्थापना

  • उन्होंने मुंगेर में अपनी निजी लाइब्रेरी (17,000+ पुस्तकें) जनहित में समर्पित की, जिससे जनता पुस्तकालय बना

  • उनके प्रयासों से ही आगे चलकर श्रीकृष्ण विज्ञान केंद्र (1978) और श्रीकृष्ण स्मारक सभागार पटना में स्थापित हुए

4. औद्योगिक आधारभूत ढाँचे का निर्माण

  • राजेन्द्र सेतु (1959): गंगा पर बना बिहार का पहला रेल-सड़क पुल

  • बराैनी रिफ़ाइनरी, बिहार स्टेट इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड, राँची का हेवी इंजीनियरिंग कॉरपोरेशन,

  • फतुहा-इस्लामपुर औद्योगिक कॉरिडोर,

  • सिंचाई और बिजली के लिए कोशी, अघौर, गंडक और सोन परियोजनाएँ

  • उन्होंने वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ तकनीकी विकास को बढ़ावा दिया, जिसके लिए आज भी वे याद किए जाते हैं

5. कृषि और श्रम कल्याण

  • किसानों के लिए बीज वितरण, कृषि प्रशिक्षण केंद्र, कृषि-ऋण, फसली बीमा

  • श्रमिकों के लिए न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, श्रम-सुरक्षा कानूनों का प्रवर्तन

  • सहकारी समितियों का विस्तार एवं सशक्तिकरण


संविधान सभा में भूमिका और राष्ट्रीय दृष्टि

डॉ. सिंह संविधान सभा के सदस्य थे।
उनकी चर्चाएँ विशेषकर इन विषयों पर महत्त्वपूर्ण रहीं:

  • संघीय ढाँचा

  • राज्य की वित्तीय स्वायत्तता

  • अल्पसंख्यक अधिकार

  • उच्च शिक्षा में राज्य की भूमिका

  • उन्होंने गाँधी और नेहरू के बीच संतुलन बनाने का काम किया, और कई बार नेहरू से असहमति भी जताई।

उनके लिखे गए पत्रों का संकलन "Freedom and Beyond" के नाम से प्रकाशित हुआ, जिसमें उनकी दृष्टि स्पष्ट झलकती है।


व्यक्तित्व और निजी जीवन

  • वे सादगी के मूर्तिमान स्वरूप थे—धोती-कुर्ता पहनते, सादा भोजन करते, परंतु प्रशासन में अत्यंत कड़क

  • उनकी धर्मपत्नी कृष्णा देवी का देहांत 1944 में हुआ

  • दो पुत्र—शिवशंकर सिंह एवं बंधुशंकर सिंह, प्रशासनिक सेवाओं में रहे

  • वे जनता से सीधा संवाद रखते और हर सप्ताह जनता दरबार लगाते

  • मुंगेर स्थित उनकी कोठी, उनकी सार्वजनिक सेवा और निजी सादगी का प्रतीक है


मृत्यु और स्मरण

  • 31 जनवरी 1961 को पटना में उनका निधन हुआ

  • उन्हें पटना के सचिवालय परिसर में श्रद्धांजलि दी गई और उनका अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान के साथ हुआ

  • उनके सम्मान में सरकार ने

    • डाक टिकट (1988)

    • श्रीकृष्ण सिंह चिकित्सा महाविद्यालय (बेगूसराय)

    • श्रीकृष्ण विज्ञान केंद्र (पटना)

    • और कई सड़कें, पुस्तकालय और स्मारक उनके नाम पर बनाए

2021 में बिहार विधानसभा ने सर्वसम्मति से उन्हें “भारत रत्न” देने की माँग की।


निष्कर्ष: श्री बाबू की चिरस्थायी प्रेरणा

डॉ. श्रीकृष्ण सिंह का जीवन सिर्फ एक मुख्यमंत्री का नहीं, बल्कि एक विचारधारा, एक आंदोलन, और एक विकास‑दृष्टि का जीवन था।
उनकी प्रशासनिक दक्षता, जनप्रतिबद्धता, सामाजिक न्याय के लिए अदम्य साहस और विकास की प्रगतिशील सोच—आज भी भारतीय राजनीति के लिए मार्गदर्शक हैं।

वे पहले मुख्यमंत्री थे जिन्होंने विकास और नैतिकता दोनों को शासन की धुरी बनाया।
उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि सच्चे लोकतंत्र की नींव सिर्फ वोट से नहीं, नीतियों और मूल्यों से बनती है।

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